गांधी के ब्रह्मचर्य प्रयोग

जोसेफ लेलीवेल्ड की नई पुस्तक ‘ग्रेट सोलः महात्मा गाँधी एंड हिज स्ट्रगल विद इंडिया’ पर गुजरात में प्रतिबन्ध लगा दिया गया। महाराष्ट्र में भी वही तैयारी शुरू हुई थी। पुस्तक में विवादास्पद प्रसंग सन् 1904-13 का है, जब गाँधीजी की दोस्ती हरमन कलेनबाख (1871-1945) से हुई। गाँधी और कलेनबाख एक-दूसरे को ‘अपर हाऊस’ और ‘लोअर हाऊस’ कहते थे। इसका कोई अर्थ स्पष्ट नहीं है। गाँधी ने अपने कमरे में मैंटलपीस पर केवल कलेनबाख की तस्वीर लगा रखी थी। उन्हें अत्यंत प्रेम-पूर्ण पत्र लिखते थे। ऐसे विविध तथ्यों के आधार पर लेलीवेल्ड ने विशिष्ट संबंध का अनुमान लगाया। यद्यपि कोई निश्चित बात नहीं कही। किन्तु यूरोपीय अखबारों में छपी चटखारे वाली समीक्षाओं के आधार पर ही पुस्तक प्रतिबंधित हो गई।

हालाँकि पुस्तक गाँधीजी के निजी जीवन पर केंद्रित नहीं। 425 पृष्ठ की पुस्तक में कलेनबाख-गाँधी संबंध पर बमुश्किल बारह पृष्ठ हैं। पुस्तक का कैनवास बहुत बड़ा है। फिर, वयोवृद्ध लेलीवेल्ड एक गंभीर लेखक, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के पत्रकार, न्यूयार्क टाइम्स के पूर्व संपादक, तथा भारत और दक्षिण अफ्रीका पर चार दशक से भी अधिक समय से लिखते-पढ़ते रहे हैं। इसीलिए ब्रिटिश विद्वान मेघनाद देसाई ने कहा कि इस पुस्तक पर प्रतिबन्ध दिखाता है कि “भारत अभी राजनीतिक रूप से भीरू है जो कठिन प्रश्नों एवं आलोचनाओं का सामना करते की ताब नहीं रखता”।

यह टिप्पणी लेलीवेल्ड की बजाए भारतीयों को ही कठघरे में ला देती है। हमें देसाई की चुनौती स्वीकार करनी चाहिए, और गाँधी-नेहरू की महानता के खुले मूल्यांकन के लिए तैयार होना चाहिए। उस से यदि कोई गढ़ी गई मूर्ति टूटती है, तो टूटे। पर कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि एक व्यक्ति किसी क्षेत्र में महान हो सकता है, तो निजी जीवन में मोहग्रस्त और किसी क्षेत्र में गलत भी हो सकता है। गाँधीजी के बारे में असुविधाजनक सच कहना उनका निरादर नहीं है।

ऐसे सच की संख्या छोटी नहीं। यह केवल निजी दुर्बलताओं तक सीमित नहीं। इसमें व्यक्तिगत राग-द्वेष रखने से लेकर राजनीतिक निर्णयों का ऐसे राग-द्वेष से प्रभावित होने; सत्य-अहिंसा पर दोहरे-तिहरे तथा अंतर्विरोधी मानदंड अपनाने; जब चाहे हजारों-लाखों दूसरे लोगों को मर जाने की सलाह दे डालने (जरा इस पर सोचिए!!); अनेक महापुरुषों के प्रति कटु भाषा का प्रयोग करने; अपने आश्रितों, अनुयायियों पर रोजमर्रा बातों में भी तरह-तरह की जबर्दस्ती करने; अपनी भूल स्वीकारने में भी कई बार अहंकार की गंध होने; भिन्न मत रखने वाले शक्तिशाली व्यक्तियों के प्रति नकली सम्मान दिखाने, जो शिष्टाचार से भिन्न चीज है; आदि कई विषय में सच गाँधी की छवि पर धब्बा लगाता है। ऐसी कई बातें गाँधी के सहयोगियों और दूसरे समकालीन महापुरुषों ने कही हैं। यह सब छिपाकर ही गाँधी की महात्मा छवि बनाई गई, जो सही नहीं। वह एक महान मानवतावादी थे, पर महात्मा नहीं।

काम-भावना की दुर्दम्य शक्ति ही लें। सत्तर वर्ष का कोई महापुरुष किसी कमसिन लड़की के साथ एकांत में ब्रह्मचर्य प्रयोग की इच्छा रखे, और ताउम्र रखे रहे, यह कैसी बात है? ऐसा प्रस्ताव पाकर कौन लड़की नहीं सहमेगी? (उन सभी तस्वीरों को ध्यान से देखें जिनमें गाँधी दो युवतियों के कंधों पर एक-एक हाथ रखे हुए चले आ रहे हैं। मुख-मुद्राएं हमेशा कुछ कहती हैं।) फिर, कौन अपनी लड़की के साथ ऐसे प्रयोग करने की अनुमति स्वेच्छा से देगा? क्या गाँधी के बेटों ने भी दिया था? ऐसे प्रश्नों का उत्तर अप्राप्य नहीं है। वास्तव में इन उत्तरों को दबा दिया गया है। कई तथ्य स्वयं गाँधी के लेखन में हैं, किन्तु उन्हें विचार के लिए रखने मात्र से आपत्ति की जाती है।

गाँधीजी ने किसी भारतीय गुरू से कोई धर्म-चिंतन, योग या दर्शन की शिक्षा नहीं ली। (गोखले को उन्होंने अपना गुरू कहा, मगर किस बात में, यह स्पष्ट नहीं। क्योंकि गोखले ने ही हिन्द स्वराज को हल्की, फूहड़ रचना कहा था। यदि गोखले वास्तव में गुरू होते, तो फिर उस पुस्तिका को फेंक देना या आमूल सुधारना जरूरी था। वह गाँधी ने नहीं किया।) गीता या रामायण की शिक्षाओं पर भी गाँधी ने अपने ही मत को सर्वोपरि माना। कुल मिला कर गाँधी के जाने-माने गुरू रस्किन या टॉल्सटॉय ही रहे हैं। किन्तु क्या गाँधी टॉल्सटॉय की कसौटी पर भी खरे उतरते हैं? न केवल अहिंसा, बल्कि काम-भावना पर भी।

टॉल्सटॉय के दो उपन्यास ‘अन्ना कारेनिना तथा ‘पुनरुत्थान स्त्री-पुरुष संबंधों में असंयम, भटकाव तथा संबंधित सामाजिक समस्या से सीधे जुड़े हुए हैं। इसके अतिरिक्त तीन महत्वपूर्ण लघु-उपन्यास – ‘क्रूजर सोनाटा’ (1889), ‘द डेविल’ (1889), और ‘फादर सेर्जियस’ (1898)। तीनों ही स्त्री-पुरुष संबंधों में काम-ग्रस्तता और कामदेव की दुर्दम्य शक्ति पर लिखी गई है। टॉल्सटॉय की महानतम रचना ‘युद्ध और शांतिमें भी उसका प्रमुख नायक पियरे काम-भाव की शक्ति से डरता है। टॉल्सटॉय ने इस समस्या की जटिल, किन्तु यथार्थपरक प्रस्तुति की है। किन्तु ‘ब्रह्मचर्य’ पर गाँधी जितनी चिंता दिखाते रहे हैं, उसमें टॉल्सटॉय की झलक नगण्य है।

ब्रह्मचर्य का गाँधी ने जो अर्थ किया, वह भारतीय ज्ञान-परंपरा से भी पूर्णतः भिन्न है। किसी का आजीवन ब्रह्मचारी रहना, अथवा किसी गृहस्थ का ब्रह्मचारी होना, जैसी बातें भारतीय परंपरा में नहीं हैं। फिर, गाँधी प्रत्येक व्यक्ति को गुण-भाव-प्रवृत्ति में समान मान कर चलते हैं। मानो सबको एक जैसा अस्त्र-शस्त्र वितृष्ण या ब्रह्मचारी बनाया जा सकता हो। यह समझ हिन्दू ज्ञान से एकदम दूर है। भारतीय योग-चिंतन किसी में उस के गुणों, प्रवृत्तियों को देख-पहचान कर ही उस के लिए उपयुक्त शिक्षा की अनुशंसा करता है। ब्रह्मचर्य के लिए भी योग-चिंतन भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न प्रावधान करता है। कुछ व्यक्तियों में काम-भावना निष्क्रिय होती है, दूसरों में सक्रिय। सच्चे योगी पहले प्रकार के व्यक्ति को सीधे ब्रह्मचर्य में दीक्षित कर उचित चर्या में लेंगे, जबकि दूसरे को विवाह कर उस की सक्रिय काम-प्रवृत्ति को पहले सामान्य, संतुष्ट अवस्था तक पहुँचने की सलाह देंगे। सक्रिय काम-प्रवृत्ति वाले को उसी अवस्था में ब्रह्मचर्य में दीक्षित करने से वह दमित काम-भाव से ग्रस्त एक प्रकार के रोगी में बदलेगा। गाँधी के ब्रह्मचर्य संबंधी कथनों (उसे चिंतन कहना बेकार है) में इसे नजरअंदाज किया गया है। सेमेटिक अंदाज में वह सभी मनुष्यों को एक सा मानकर एक सी दवा करते हैं। उनका ब्रह्मचर्य संबंधी विविध लेखन पढ़कर तो संदेह होता है कि सन् 1906 में गाँधी द्वारा ‘ब्रह्मचर्य व्रत’ लिया जाना स्वयं उन की ही प्रवृत्ति के लिए अनुपयुक्त था। ब्रह्मचर्य लेने के बाद भी वर्षों, दशकों, बल्कि जीवन-पर्यंत ब्रह्मचर्य की ‘जाँच’ करते रहने के प्रयोग की कैफियत क्या है?

यदि निरादर के नाम पर तथ्यों, विश्लेषणों को प्रतिबंधित करना पड़े तब गाँधीजी के पौत्र राजमोहन गाँधी द्वारा लिखित मोहनदास  (2007) पर भी प्रतिबन्ध लग जाना चाहिए। इसमें सरलादेवी चौधरानी और गाँधीजी के प्रेम-संबंध बनने से लेकर टूटने तक वर्षों की कहानी है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की भतीजी सरलादेवी विवाहिता थीं, जब गाँधीजी उन पर लट्टू हो गए। यह 1919-20 की बात है, जब गाँधी लाहौर में सरलादेवी के घर पर टिके। उस समय उनके पति कांग्रेस नेता रामभज दत्त जेल में थे। गाँधी और सरलादेवी अनेक जगह साथ-साथ गए। बाद में गाँधी ने उन्हें रस में पगे पत्र लिखे। राजमोहन के अनुसार गाँधी के उस प्रेम में ‘हल्का कामुक’ भाव भी था। राजमोहन ने यह भी लिखा है कि वह काल गाँधीजी की पत्नी कस्तूरबा के लिए अत्यंत यंत्रणा भरा था। जब गाँधी-सरलादेवी सम्बन्ध पर चारो तरफ से ऊँगलियाँ उठीं, तो गाँधीजी ने इसे सरलादेवी के साथ अपना ‘आध्यात्मिक विवाह’ बताया जिसमें “दो स्त्री पुरूष के बीच ऐसी सहभागिता है जहाँ शरीरी तत्व का कोई स्थान न था”। हालाँकि ‘विवाह’ शब्द ही चुगली कर देता है कि गाँधीजी स्त्री-पुरुष के विशिष्ट संबंध में ही आसक्त हुए थे। स्वयं राजमोहन गाँधी ने भी ‘आध्यात्मिक विवाह’ जैसे मुहावरे का अर्थ देने से छुट्टी ले ली है, यह कह कर कि “इस का जो भी अर्थ हो”।

अंततः, गाँधीजी पर दबाव डालकर सरलादेवी से संबंध तोड़ने में उनके बेटे देवदास, कस्तूरबा, सचिव महादेव भाई तथा सी. राजगोपालाचारी जैसे कई निकट सहयोगियों, आदि द्वारा किए गए समवेत प्रयास का योगदान था। वस्तुतः गाँधीजी के पूरे जीवन पर दृष्टि डालें तो सन् 1906 से लेकर जीवन के लगभग अंत तक, ‘ब्रह्मचर्य’ व्रत धारण किए रखने और साथ ही साथ स्त्रियों, लड़कियों के साथ विविध प्रयोग करते रहने के प्रति उन की आसक्ति की कोई आसान व्याख्या नहीं हो सकती। यह गाँधीजी की भावनात्मक दुर्बलता का ही संकेत अधिक करती है। अप्रैल-जून 1938 के बीच प्यारेलाल, सुशीला नायर, मीरा बेन, और अनेक लोगों को लिखे अपने दर्जनों पत्रों और नोट में गाँधी ने इसे स्वयं स्वीकार किया है। बल्कि कई बार ऐसे शब्दों में स्वीकार किया है कि भक्त गाँधीवादियों को धक्का लग सकता है।

राजमोहन गाँधी की पुस्तक उन्हीं कारणों से चर्चित हुई थी। उस में गाँधी एक क्रूर, तानाशाह पति, लापरवाह पिता, मनमानी करने वाले आश्रम-प्रमुख, और विवाहेतर प्रेम-संबंधों में पड़ने वाले व्यक्ति के रूप में भी दिखाए गए हैं। गाँधी कभी भरपूर कामुकता से पत्नी के साथ व्यवहार करते थे, तो कभी एकतरफा रूप से शारीरिक-संबंध विहीन दांपत्य रखते थे। कभी दूसरी स्त्रियों के प्रति गहन राग प्रदर्शित करते थे। अथवा कुँवारी लड़कियों के साथ अपने कथित ब्रह्मचर्य संबंधी प्रयोग करने लगते थे। यह सब जीवन-पर्यंत चला। गाँधीजी के निकट सहयोगी और विद्वान राजगोपालाचारी ने कहा भी था कि, “अब कहा जाता है कि गाँधी ऐसे जन्मजात पवित्र थे कि उनमें ब्रह्मचर्य के प्रति सहज झुकाव था। पर वास्तव में वह काम-भाव से बहुत उलझे हुए थे।”

इसीलिए, राजमोहन ने भी यही कहा था कि वह गाँधीजी को मनुष्य के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, किसी महात्मा जैसा नहीं। अर्थात्, ‘मोहनदास’ में भी मानवोचित कमजोरियाँ थीं। वस्तुतः मीरा बेन ने तो इतने कठोर शब्दों में गाँधीजी की लड़कियों को निकट रखने, उनसे शरीर की मालिश करवाने जैसी विविध अंतरंग सेवाए लेने, और अन्य आसक्ति की भर्त्सना की, बार-बार की, उन्हें बरजा, कि गाँधीजी को तरह-तरह से सफाई देनी पड़ी। मगर गाँधी ने मीरा बेन, आश्रमवासियों और अन्य की सलाह नहीं मानी। यह कहकर कि जो काम वे पिछले चालीस वर्ष से कर रहे हैं, वह करते रहेंगे, क्योंकि ‘जरूर यही ईश्वर की इच्छा होगी, तभी तो वह इतने सालों से यह कर रहे’ हैं! इससे अधिक विचित्र तर्क, या कुतर्क नहीं हो सकता। यद्यपि यह कथन भी पूर्ण सत्य नहीं है। गाँधी की आत्मकथा 1926 में लिखी गई थी। उस में ऐसी आदतों की कोई चर्चा नहीं है, जिसे 1938 में गाँधी ‘चालीस साल पुरानी’ बताकर अपना बचाव करते हैं।

निस्संदेह, सैद्धांतिक विश्लेषण के लिए यह रोचक विषय है। गाँधी जी की काम-भावना संबंधी दिलचस्पी पर अनेक विद्वानों ने लिखा है। जैसे, निर्मल कुमार बोस (माइ डेज विद गाँधी, 1953, अब ओरिएंट लॉगमैन द्वारा प्रकाशित), एरिक एरिकसन (गाँधीज ट्रुथ, डब्ल्यू डब्ल्यू नॉर्टन, 1969), लैपियर और कॉलिन्स (फ्रीडम एट मिडनाइट, साइमन एंड शूस्टर, 1975), वेद मेहता (महात्मा गाँधी एंड हिज एपोस्टल्स, वाइकिंग, 1976), सुधीर कक्कड़  (मीरा एंड द महात्मा, पेंग्विन, 2004), जैड एडम्स (गाँधीः नेकेड एम्बीशन, क्वेरकस, 2010) आदि। इन लेखकों में एरिकसन, लैपियर-कॉलिन्स, बोस, मेहता तथा कक्कड़ अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान रहे हैं। इन में से किसी को दूर से भी सनसनी-खेज, बाजारू या क्षुद्र लेखक नहीं कहा जा सकता।

गाँधीजी के उन प्रयोगों के सिलसिले में सरलादेवी ही नहीं, सरोजिनी नायडू, सुशीला नायर, सुचेता कृपलानी, प्रभावती, अमतुस सलाम, लीलावती, मनु, आभा, आदि कई नाम आते हैं। लड़कियों और स्त्रियों के समक्ष गाँधी आकर्षक रूप में आते थे। उन्हें तरह-तरह के प्रयोग करने के लिए तैयार करते थे। जैसे, बिना एक-दूसरे को छुए निर्वस्त्र होकर साथ सोना या नहाना। घोषित रूप से कभी इस का उद्देश्य होता था ‘प्राकृतिक चिकित्सा’ तो कभी ‘ब्रह्मचर्य-शक्ति बढ़ाने’ का प्रयास। सुशीला नायर के अनुसार पहले तो ऐसे सभी कार्यों को प्राकृतिक चिकित्सा ही कहा जाता था। जब आश्रम में आवाजें उठने लगीं तो ब्रह्मचर्य प्रयोग कहकर आलोचनाओं को शांत किया गया। हालाँकि, नायर ने उन प्रयोगों में कुछ गलत नहीं कहा है। इन्ही रूपों में 77 वर्ष के गाँधीजी अपनी दूर के रिश्ते की 17 वर्षीया पौत्री को नग्न होकर अपने साथ सोने के लिए तैयार करते थे। इन बातों पर उनकी दलीलें प्रायः विचित्र और अंतर्विरोधी भी होती थीं। ऐसे प्रसंगों में गाँधी को एक ही समय अलग-अलग व्यक्तियों को अलग-अलग दलीलें देते पाया जा सकता है। इसीलिए इन सब बातों का संपूर्ण विवरण रखकर उनकी कोई ऐसी व्याख्या देना संभव नहीं, जिससे महात्मा की छवि यथावत् रह सके।

अपनी आत्मकथा (1925) में भी गाँधीजी ने ‘ब्रह्मचर्य’ पर दो अध्याय लिखे हैं। अन्य अध्यायो में भी इस विषय को जहाँ-तहाँ स्थान दिया। इसी में यह सूचना है कि 1906 ई. में ही गाँधी ने ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया था, और बहुत विचार-विमर्श के बाद लिया गया था। विचित्र यह कि इस विमर्श में पत्नी को शामिल नहीं किया गया! फिर, वहीं यह भी लिखा है कि ‘जननेन्द्रिय’ पर संपूर्ण नियंत्रण करने में ‘आज भी’ कठिनाई होती है। यह ब्रह्मचर्य व्रत लेने के बीस वर्ष बाद, और 56 वर्ष की आयु में लिखा गया था।

फिर जून 1938 में भी गाँधीजी ने ‘ब्रह्मचर्य’ पर एक लेख लिखा था। इसे उनके अनुयायियों ने दबाव डाल कर छपने नहीं दिया। उसमें 7 अप्रैल को देखा गया ‘खराब स्वप्न’ तथा ‘14 अप्रैल की घटना’, जब गाँधी का अनचाहे वीर्य-स्खलन हो गया था, इन घटनाओं पर गाँधी बहुत हाय-तौबा मचाते हैं। दो महीने से अधिक समय तक अनेक लोगों को लिखे पत्रों में उस की चर्चा करते हैं। विशेषकर महिला मित्रों और सहयोगियों को, जैसे राजकुमारी अमृत कौर, सुशीला नायर, मीरा बेन, आदि। उनसे अपने तौर-तरीके में ‘परिवर्तन’ पर विचार करते हैं, सुझाव माँगते हैं। यह शंका भी व्यक्त करते हैं कि स्त्रियों के संसर्ग में रहने से ही तो वह घटनाएं नहीं हुईं? यहाँ तक कि कांग्रेस में बढ़ते भ्रष्टाचार को न रोक पाने में भी अपनी यह ब्रह्मचर्य वाली कमी जोड़ते हैं, आदि आदि। रोचक बात यह है कि इतनी हाय-तौबा के बावजूद गाँधी अपने तौर-तरीकों में लेश-मात्र परिवर्तन नहीं करते। उन का स्त्रियों से अंतरंग सेवा लेने संबंधी व्यवहार या ब्रह्मचर्य-प्रयोग यथावत् रहा।

ऐसा चिंतन और व्यवहार निस्संदेह विचित्र था। गाँधी के सहयोगियों ने उस लेख को छपने से रोका, तो कहना चाहिए कि उनका विवेक गाँधी से अधिक जाग्रत था। जैड एडम्स के अनुसार गाँधी के देहांत के बाद उनके द्वारा लिखे ऐसे कई पत्रों को नष्ट कर दिया गया, जिस में ब्रह्यचर्य संबंधी उनके अपने तथा संबंधित व्यक्तियों के कार्यों, निर्देशों की चर्चा थी। स्वयं गाँधी ने इन प्रसंगों से संबंधित कई पत्र उसी समय नष्ट किए, करवाए थे। प्रख्यात विद्वान धर्मपाल ने भी अपनी पुस्तक ‘गाँधी को समझें में लिखा है कि वह 1938 वाला लेख अब नष्ट हो चुका है। धर्मपाल ने वर्धा आश्रम में किसी आश्रमवासी की पुस्तिका से उस की नकल उतार ली थी, जिस का लंबा उद्धरण अपनी पुस्तक में दिया है। दिलचस्प यह कि ब्रह्मचर्य पर गाँधी का बचाव करते हुए, उसकी ‘सही और विस्तृत व्याख्या’ की जरूरत बताकर भी, स्वयं धर्मपाल ने उस की कोई व्याख्या नहीं दी।

गाँधीजी के अनेकानेक प्रसंगों से स्पष्ट है कि काम-भाव संबंधी विचारों से वे आजीवन ग्रस्त और त्रस्त रहे। इस का सबसे दारुण प्रमाण यह है कि सन् 1938 में अपनी दुर्बलता पर क्षोभ, टिप्पणी या शंका करने के बाद भी वह वही ‘प्रयोग’ करते रहे। यानी ब्रह्मचर्य लेने के चालीस वर्ष बाद भी काम-भाव संबंधी विषय उनके मानस से ही नहीं, बल्कि सक्रिय गतिविधियों से बाहर नहीं हो सके थे। अजीब यह भी है कि ब्रह्मचर्य जैसे प्रयोग गाँधीजी ने सबसे प्रियतम व्रत अहिंसा के संबंध में कभी नहीं किए! हिंसक व्यक्तियों, विचारधाराओं, संगठनों पर अहिंसा की शक्ति आजमाने की कोई व्यवस्थित जाँच गाँधी ने कभी की हो, ऐसा कुछ नहीं मिलता। अहिंसा पर गाँधी प्रायः घोषणाएं करते, फतवे देते ही पाए जाते हैं। जैसा लड़कियों के साथ ब्रह्मचर्य का करते थे, किसी हिंसक व्यक्ति के साथ अहिंसा का नाजुक प्रयोग करते गाँधी का उदाहरण नहीं मिलता। इन सभी विन्दुओं को रफा-दफा करना, या कोई मासूम-सी व्याख्या देकर असुविधाजनक सवालों को किनारे कर देना उचित नहीं है।

वैसे भी, क्या महापुरुषों द्वारा किए जाने वाले प्रयोगों, विचारों आदि की केवल एक ही व्याख्या होनी चाहिए? गाँधीजी द्वारा किन्हीं अल्पवयस्क लड़कियों को अपने ब्रह्मचर्य प्रयोगों का साधन बनाना कहाँ तक उचित था? क्या उसके लिए वह लड़कियाँ और उनके परिवार के लोग सहज तैयार होते थे? क्या ऐसी बातों पर टिप्पणियों, प्रश्नों और तथ्यों तक को प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए? यदि वही करना हो, तब स्वयं गाँधीजी के लेखन के कई अंश हटाने-छिपाने होंगे। जैसा किसी ने कहा, “यदि ‘गाँधी और सेक्स’ जैसे विषय पर लिखी बातों को प्रतिबंधित करना हो तब तो बड़ी मात्रा में गाँधी के अपने लेखन को, जो भारत सरकार द्वारा ही छापी गई है, भी जाना होगा।”

उस अंदाज में तो पामेला एंडरसन की पुस्तक ‘इंडिया रिमेम्बर्डः ए पर्सनल एकाऊंट ऑफ द माऊंटबेटंस डयूरिंग द ट्रांसफर ऑफ पावर’ (2007) पर भी प्रतिबन्ध लगना था। जिस में लेखिका ने अपनी माता एडविना माऊंटबेटन के जवाहरलाल नेहरू के साथ प्रेम संबंधों के संदर्भ में लिखा है कि उस प्रभाव में नेहरू द्वारा कई राजनीतिक निर्णय लिए गए। इस कार्य में लॉर्ड माऊंटबेटन द्वारा जान-बूझ कर एडविना का उपयोग किए जाने की भी चर्चा है। पामेला के शब्दों में, “If things were particularly tricky my father would say to my mother, ‘Do try to get Jawaharlal to see that this is terribly important…’”। कुछ यही बात मौलाना अबुल कलाम आजाद ने भी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में भी लिखी थी कि नेहरू द्वारा देश का विभाजन स्वीकार करने में एडविना का प्रभाव उत्तरदायी था।

पामेला लिखती हैं कि नेहरू और एडविना एक-दूसरे पर बेतरह अनुरक्त थे। यहाँ तक कि दोनों के बीच एकांत में वे पामेला की उपस्थिति को भी पसंद नहीं करते थे। यद्यपि पामेला ने दोनों के बीच शारीरिक संबंध नहीं बताया, किन्तु रेखांकित किया है कि इससे उन दोनों के बीच संबंधों की शक्ति को कम करके नहीं देखना चाहिए। यह जीवन पर्यंत चला। नेहरू 1957 में एडविना को एक पत्र में लिखते हैं, “मैंने यकायक महसूस किया और संभवतः तुमने भी किया हो कि हम दोनों के बीच कोई अदम्य शक्ति है, जिससे मैं पहले कम ही अवगत था, जिसने हमें एक-दूसरे के करीब लाया।” एडविना के देहांत (1960) के बाद उन के सिरहाने नेहरू के पत्रों का बंडल मिला था। उन की अंत्येष्टि में नेहरूजी ने सम्मान स्वरूप भारतीय नौसेना का एक फ्रिगेट जहाज भेजा था।

वस्तुतः स्वतंत्र भारत में गाँधी-नेहरू के बारे में एकदम आरंभ से ही एक देवतुल्य छवि देने की गलत परंपरा बनाई गई है। गाँधीजी की हत्या के कारण देश को लगे धक्के से ऐसा करना बड़ा आसान हो गया। उस से पहले तक गाँधीजी, और उनके विविध राजनीतिक, गैर-राजनीतिक, निजी कार्यों के प्रति आलोचना के तीखे स्वर प्रायः खुलकर सुने जाते थे। यह स्वर उनके निकट सहयोगियों से लेकर बड़े-बड़े मनीषियों के थे। गाँधीजी की हत्या से उपजी सहानुभूति में इन स्वरों का अनायास लोप हो गया। उस वातावरण का लाभ उठाकर व्यवस्थित प्रचार और बौद्धिक कारसाजी ने आने वाली पीढियों के लिए गाँधी-नेहरू की एक रेडीमेड छवि बनाई। कुछ-कुछ सोवियत दौर के पूर्वार्द्ध वाले ‘लेनिन-स्तालिन’ जैसी। सत्ताधारी दल और उसके नेतृत्व ने इस का अपने हित में कई तरह से राजनीतिक उपयोग भी किया।

यह प्रमुख कारण है कि कि स्वतंत्र भारत में गाँधी-नेहरू के बारे में तथ्यों, विवरणों, प्रसंगों की अघोषित सेंसरशिप चलती रही है। जो भी बात उन की छवि पर बट्टा लगा सकती हो, उसे प्रतिबंधित या वैसा लिखने-बोलने वाले को लांछित किया जाता है। इस के पीछे सीधे-सीधे राजनीतिक उद्देश्य रहे हैं, जो देश की नई पीढियों के शैक्षिक, बौद्धिक विकास के लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध हुआ है।
(यह निबंध  ‘गाँधी और ब्रह्मचर्य’ का एक अंश है)

9 comments:

  1. You are doing a great job, keep it up.....

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  2. It's quite difficult to point out some fault to someone, who is saying that, he has been keeping his/her on her/him-self. That was the case with Mr. Gandhi. and me too ;)

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  3. मुझे भी लगता है कि गांधी-नेहरु परिवार का जो स्वरुप आज भारतीय इतिहास में दर्ज है, वह पूरी तरह से बदले गए हैं..
    आजकल अंतरजाल के माध्यम से इनके खिलाफ भी कई दलीलें सुनने को मिलती हैं कि लगता है कि जो हमने पहले सुना-पढ़ा है. सब फरेब है..
    वैसे तो यही दुनिया का दस्तूर है कि अपने अनुसार, शक्तिशाली इंसान, अपने आप को जैसा चाहे प्रस्तुत कर सकता है..

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  4. kya bakwass hai ye ,gandhi ji k saath raehne vali do ladkiya unke parivar ki thi kjo photo main dikhai deti hai,or jaha tak rahi unke prayogo k bare mai to main sirf itna kehna chahunga k pehle to aisa kuch hua nahi par yadi maan lo 1% bhi aisa kuch hua to aisa bol k kya fayada ek admi jo apka rashtrapita ho uske liye sarvjanik rup se aisa kehna galat hai,app lakh kosish kar le gandhi was a great man and he will always be regarded as good man....
    n better u find some good things to talk about then wasting your valuable time on writing this cheap article

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  5. i totaly agreed to this article . realy hamne jo padha suna hai aaj maloom hota hai ki wo kitna galat tha...
    gud job thalua.....

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  6. himanshu g ese rastra kaa koe peeta nahee hoo saakta ......yee kesi key baap daada ka khandaan nahi hai....ese desh kaa etash gadhi key hajaroo saal pehley kaa hai lekin koee eska peeta nahjee ban saaka.esmey sub kaa khoon paseen laga hai kewal gadhi kaa nahee,..sumjhey

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  7. Better go through this new book – “Gandhi ke brahmacharya prayog” (Delhi: Rajpal and Sons, 2012), it is really very interesting and revealing. Everything the author has said is through Gandhi’s own narrations and comments!
    There is no other book like it so far on this subject.



    Price: Rs 250.00
    ISBN: 9789350640814
    Author: शंकर शरण
    Publisher: Rajpal and Sons
    Language: Hindi
    Pages: 152

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  8. Better go through this new book – “Gandhi ke brahmacharya prayog” (Delhi: Rajpal and Sons, 2012), it is really very interesting and revealing. Everything the author has said is through Gandhi’s own narrations and comments!
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    Pages: 152

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  9. Gandhi Bhakto jra dhan se padho, ye desh ka sabse bada news paper kah raha h

    http://www.jagran.com/news/national-gandhian-unhappy-to-read-article-about-gandhi-relation-10468784.html

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